नई दिल्ली। छह दशक पहले की एक सर्द रात, जब तिब्बत की राजधानी ल्हासा तोपों की गूंज से कांप रही थी और चीनी सेना चारों ओर से शहर को घेर चुकी थी, उसी वक्त एक 23 वर्षीय भिक्षु सैनिकों के वेश में चुपचाप महल से बाहर निकल गया। यह साधारण भिक्षु नहीं, बल्कि तिब्बत के आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता, 14वें दलाई लामा थे। उनकी मंजिल थी आजादी और लक्ष्य था ज़िंदा रहना।
दलाई लामा के तिब्बत छोड़ने की यह ऐतिहासिक गाथा कई वर्षों से चल रही घटनाओं की परिणति थी। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, तो वहां की जनता और चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच तनाव लगातार बढ़ता गया। 1951 में हुए 17 सूत्री समझौते में तिब्बत को चीन के अधीन स्वायत्तता देने का वादा किया गया था, लेकिन चीन की तरफ से इस समझौते का बार-बार उल्लंघन होने लगा, जिससे तिब्बती जनता का विश्वास टूट गया।
इस पूरे घटनाक्रम में एक निर्णायक मोड़ तब आया जब एक चीनी जनरल ने दलाई लामा को सैन्य मुख्यालय में एक डांस शो में शामिल होने का निमंत्रण भेजा, लेकिन इसके साथ एक शर्त भी रखी—उन्हें अपने अंगरक्षकों के बिना आना होगा। यही निमंत्रण तिब्बती नेतृत्व के लिए खतरे की घंटी बन गया।
इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन गया। दलाई लामा सैनिक वेश में चुपचाप निकल गए और भारत की सीमा में प्रवेश कर सुरक्षित पहुंचे। तिब्बत से भारत तक की उनकी यह यात्रा आज भी स्वतंत्रता, साहस और दृढ़ निश्चय का प्रतीक मानी जाती है।