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जम्मू–कश्मीर में 215 स्कूलों पर सरकार का आदेश, उठा सियासी बवंडर

:: Editor - Omprakash Najwani :: 23-Aug-2025
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जम्मू–कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने बड़ा कदम उठाते हुए उन 215 स्कूलों की प्रबंधन समितियों को अपने नियंत्रण में लेने का आदेश जारी किया है, जो प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी (JeI) और उसकी सहयोगी संस्था फलाह-ए-आम ट्रस्ट (FAT) से जुड़े पाए गए। खुफिया एजेंसियों ने स्पष्ट किया था कि इन स्कूलों की प्रबंधन समितियों की वैधता समाप्त हो चुकी है और इन पर नकारात्मक रिपोर्ट भी आई है। सरकार का तर्क था कि छात्रों के शैक्षणिक भविष्य और शिक्षा की गुणवत्ता को बचाने के लिए यह कदम ज़रूरी है।

लेकिन आदेश जारी होते ही विवाद खड़ा हो गया। विपक्षी दलों ने इसे “राजनीतिक अतिरेक” और “ग़ुलामी” की संज्ञा दी। सज्जाद लोन ने कहा कि सरकार लगातार ऐसे कदमों की साझीदार रही है जो कश्मीरियों पर थोपे जाते हैं। वहीं, पीडीपी की ओर से इल्तिजा मुफ़्ती ने इसे नेशनल कॉन्फ्रेंस की पुरानी नीति करार दिया, जो हमेशा से जमात-ए-इस्लामी को निशाने पर लेती आई है।

विवाद गहराने पर शिक्षा मंत्री साक़िना इट्टू ने सफाई देते हुए कहा कि यह स्कूलों का “टेकओवर” नहीं है, बल्कि केवल तीन महीने के लिए अंतरिम रूप से देखरेख की व्यवस्था है जब तक नई प्रबंधन समितियाँ CID से सत्यापित नहीं हो जातीं। उन्होंने कहा कि न स्टाफ बदला है, न भवन और न ही छात्रों पर असर पड़ेगा। लेकिन यह सफ़ाई सरकारी आदेश और शिक्षा विभाग के सचिव द्वारा जारी नोटिफिकेशन से मेल नहीं खाती, जिससे सरकार के दबाव में पीछे हटने की आशंका और गहरी हो गई।

उधर, भाजपा ने सरकार के मूल आदेश का समर्थन किया और कहा कि इससे 50 हज़ार से अधिक छात्रों को अलगाववादी विचारधारा से बचाया जा सकेगा। साथ ही शिक्षा मंत्री की “हिचकिचाहट” पर सवाल उठाते हुए पार्टी ने सरकार के दोहरे रुख को उजागर किया।

यह घटनाक्रम साफ करता है कि जम्मू–कश्मीर सरकार अभी भी राजनीतिक दबाव और सुरक्षा आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाने में असहज है। खुफिया रिपोर्ट के बावजूद नरमी दिखाना न केवल सुरक्षा एजेंसियों के मनोबल पर असर डाल सकता है, बल्कि कट्टरपंथी तत्वों को यह संकेत भी दे सकता है कि वे दबाव बनाकर नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं।

जमात-ए-इस्लामी पर 2019 से प्रतिबंध है और संगठन सीधे-सीधे अलगाववादी विचारधारा से जुड़ा है। ऐसे में उससे संबद्ध स्कूलों पर निगरानी का कदम तार्किक माना जा सकता है। लेकिन जिस तरह पहले कठोर आदेश दिया गया और फिर राजनीतिक दबाव के बीच नरमी दिखाई गई, उसने राज्य सरकार की नीतिगत स्पष्टता पर सवाल खड़ा कर दिया है।


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