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गवर्नर महज़ डाकिया नहीं: सुप्रीम कोर्ट में केंद्र और राष्ट्रपति की शक्तियों पर बहस

:: Editor - Omprakash Najwani :: 23-Aug-2025
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सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर हस्ताक्षर में देरी को लेकर महत्वपूर्ण सुनवाई हुई। मामला उस समय उठा जब मई 2025 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी कि क्या न्यायालय आदेशों द्वारा राष्ट्रपति या राज्यपाल को किसी समयसीमा में बांध सकता है।

राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 से जुड़े कुल 14 सवाल पूछे थे। इनमें प्रमुख सवाल थे—क्या कोर्ट राष्ट्रपति–राज्यपाल के लिए समय सीमा तय कर सकता है? क्या राष्ट्रपति के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है? क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले अदालत सुनवाई कर सकती है? क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का प्रयोग कर राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसले को बदल सकता है?

केंद्र सरकार ने आपत्ति जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकता कि वे कब और किन मुद्दों पर राय लें। सॉलिसिटर जनरल मेहता ने दलील दी कि राज्यपाल महज़ ‘डाकिया’ नहीं हैं जो हर विधेयक पर औपचारिक मुहर लगाते रहें। वे राष्ट्रपति और संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि यदि कोई विधानसभा अत्यंत आपत्तिजनक कानून पारित करे—जैसे आरक्षण खत्म करना, बाहर के लोगों का प्रवेश रोकना या केंद्र की एजेंसियों को बैन करना—तो गवर्नर ऐसे विधेयकों पर स्वीकृति रोक सकते हैं। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शक्ति बहुत ही दुर्लभ हालात में इस्तेमाल की जानी चाहिए।

इस पर चीफ जस्टिस आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने सवाल किया कि क्या अदालत यह कह दे कि यदि संवैधानिक पदाधिकारी काम न करें तो अदालत असहाय है? बेंच ने यह भी दोहराया कि राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने का अधिकार है और यह एडवाइजरी ज्यूरीडिक्शन के तहत आता है, न कि अपीलेट ज्यूरीडिक्शन के तहत।

गौरतलब है कि इससे पहले 8 अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। उन्हें तय समय सीमा में स्वीकृति देनी होगी, उसे वापस भेजना होगा या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा।

अब सुप्रीम कोर्ट इस प्रेजिडेंशल रेफरेंस पर विस्तृत सुनवाई कर रहा है, जिससे यह तय होगा कि विधायी प्रक्रिया में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका की संवैधानिक सीमाएँ कहां तक हैं।


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