अजमेर। यूक्रेनी मीडिया ने दावा किया है कि 22 वर्षीय भारतीय नागरिक मजोटी साहिल मोहम्मद, जो कथित रूप से रूस की सेना में भर्ती था, उसे यूक्रेनी बलों ने पकड़ लिया है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस गिरफ्तारी की पुष्टि नहीं की है, लेकिन कहा है कि रिपोर्टों की जाँच की जा रही है। बताया जा रहा है कि गुजरात के मोरबी निवासी मोहम्मद रूस में पढ़ाई के लिए गए थे, किंतु मादक पदार्थों से जुड़े एक मामले में सजा मिलने के बाद उन्हें रूसी सेना में जबरन भर्ती कर लिया गया।
यूक्रेनी 63वीं मैकेनाइज्ड ब्रिगेड द्वारा जारी एक वीडियो में मोहम्मद ने कहा कि उसे सात साल की जेल की सजा मिली थी, लेकिन सजा से राहत के बदले उसे युद्ध में भेजा गया। उसने बताया कि वह लड़ना नहीं चाहता था और अब यूक्रेन में आत्मसमर्पण कर चुका है तथा भारत लौटना चाहता है। रिपोर्टों के अनुसार, मोहम्मद को वादा किया गया था कि एक वर्ष की सेवा के बाद उसे आज़ादी और 1 लाख से 15 लाख रूबल तक भुगतान मिलेगा, किंतु उसे न पैसे मिले न आज़ादी।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने पिछले महीने ही यह पुष्टि की थी कि 27 भारतीय नागरिक अभी भी रूसी सेना में हैं। मंत्रालय ने नागरिकों को चेतावनी दी थी कि वे ऐसे किसी प्रलोभन में न आएँ क्योंकि यह “जीवन के लिए घातक जोखिम” है।
यह मामला केवल एक युवा भारतीय की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है; यह वैश्विक भू-राजनीति, आर्थिक निराशा और मानवाधिकारों की विफलता का ज्वलंत उदाहरण है। साहिल मोहम्मद की कहानी रूस-यूक्रेन युद्ध की उस धुंधली रेखा को उजागर करती है जहाँ राजनीति और पीड़ा एक-दूसरे में घुल-मिल गई है।
रूस बीते दो वर्षों से अपने सैनिकों की भारी क्षति झेल रहा है। युद्ध लम्बा खिंचने के कारण रूसी सेना को विदेशी भर्ती की ओर झुकना पड़ा है। रिपोर्टें बताती हैं कि मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीकी देशों के युवाओं को “काम” या “शिक्षा” के बहाने रूस बुलाया जा रहा है और फिर उन्हें युद्ध में झोंक दिया जाता है। भारतीय छात्रों का भी इस जाल में फँसना इसी वैश्विक शोषण का परिणाम है।
मजोटी साहिल का बयान— “वहाँ कोई सच्चाई नहीं है”— रूस की युद्ध मशीन की क्रूरता का प्रतीक है। जब किसी युवा को जेल से सेना में भर्ती होने का “विकल्प” दिया जाता है, तो वह दरअसल दंड और मृत्यु के बीच की मजबूर पसंद होती है। रूस की यह नीति अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का उल्लंघन है, जो बंदियों को किसी भी प्रकार की सैन्य सेवा के लिए बाध्य करने पर रोक लगाती हैं।
भारत के लिए यह एक राजनयिक चुनौती है। एक ओर नई दिल्ली रूस के साथ अपने पारंपरिक रक्षा-संबंधों को बनाए रखना चाहती है, दूसरी ओर अपने नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उसकी है। यूक्रेन में भारतीय दूतावास को अब तक कोई औपचारिक सूचना न मिलना दर्शाता है कि इस घटना पर दोनों पक्षों में संवाद सीमित है।
इस घटना का एक और पहलू भारत के युवाओं की आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा से जुड़ा है। विदेश जाकर शिक्षा या काम के बहाने नई ज़िंदगी शुरू करने की चाह आज भी अनेक युवाओं को अनजान जोखिमों की ओर धकेल रही है। जब राज्य-स्तरीय निगरानी कमजोर होती है, तब ऐसे दलालों और फर्जी एजेंसियों को अवसर मिलता है जो “रोजगार” या “वजीफा” का लालच देकर उन्हें युद्धभूमि तक पहुँचा देते हैं।
भारत सरकार ने समय रहते चेतावनी दी थी, लेकिन सूचना और जागरूकता का प्रसार पर्याप्त नहीं था। अब आवश्यकता इस बात की है कि विदेश मंत्रालय न केवल फँसे हुए 27 भारतीयों की वापसी सुनिश्चित करे, बल्कि एक ठोस अंतरराष्ट्रीय श्रमिक-सुरक्षा नीति बनाए, जिसमें विदेशों में अध्ययन या काम के लिए जाने वालों की वास्तविक स्थिति की निगरानी की जा सके।
रूस-यूक्रेन युद्ध का यह मानवीय आयाम यह सिखाता है कि आधुनिक संघर्ष केवल सीमा या विचारधारा का प्रश्न नहीं रह गए हैं, वे अब आर्थिक विषमता और वैश्विक श्रम शोषण के माध्यम बन गए हैं। जब युद्ध विदेशी छात्रों और प्रवासी मजदूरों की ज़िंदगी निगलने लगे, तो यह केवल किसी एक देश की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की हार होती है।
मजोटी साहिल मोहम्मद का यह मामला याद दिलाता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शोर में भी किसी एक व्यक्ति की चीख कितनी गहरी हो सकती है। भारत को इस चीख को सुनना होगा— कूटनीति से नहीं, बल्कि संवेदना और संकल्प से।