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किशोरों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति: सामाजिक ताने-बाने के लिए गंभीर खतरा – परिवार, शिक्षा और तकनीक की भूमिका पर उठते सवाल

:: Editor - Omprakash Najwani :: 24-Jul-2025
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तकनीकी प्रगति ने जहां ज्ञान और संचार के नए द्वार खोले हैं, वहीं यह किशोरों के लिए एक खतरनाक मायाजाल भी बन गई है। सोशल मीडिया पर आसानी से उपलब्ध हिंसक और आपत्तिजनक सामग्री किशोरों के कोमल मन को प्रभावित कर रही है। देश आज एक सामाजिक चुनौती से जूझ रहा है—किशोरों में बढ़ती हिंसक और आपराधिक प्रवृत्ति। यह न केवल वर्तमान समाज की शांति और सुरक्षा के लिए खतरा है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के नैतिक और सामाजिक ढांचे को भी प्रभावित कर रही है।

किशोरावस्था 13 से 19 वर्ष की उम्र का वह नाजुक दौर होता है, जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक परिवर्तनों से गुजरता है। इस समय उसे सही मार्गदर्शन और भावनात्मक समर्थन की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्यवश, वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में कई नकारात्मक तत्व सक्रिय हैं, जो किशोरों को रचनात्मकता से भटका कर अपराध की ओर ले जा रहे हैं।

परिवार, जो बच्चे की पहली पाठशाला होता है, आज वह खुद अस्थिरता का शिकार है। संयुक्त परिवारों की टूटती संरचना और एकल परिवारों का बढ़ता चलन बच्चों को भावनात्मक सहारा नहीं दे पा रहा। माता-पिता की व्यस्तता, एकल पालन-पोषण, आपसी कलह और तलाक जैसे कारक किशोरों को असुरक्षित बना रहे हैं। ऐसे किशोर बाहरी दुनिया में अपनापन तलाशते हैं और कई बार गलत संगत में पड़ जाते हैं, जो उन्हें हिंसा और अपराध की ओर ले जाती है।

शिक्षा प्रणाली का अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक और अंक आधारित स्वरूप भी किशोरों पर मानसिक दबाव बढ़ा रहा है। जब वे अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते, तो असफलता का बोझ उन्हें निराशा और आक्रोश की ओर धकेलता है। यह मानसिक स्थिति हिंसक व्यवहार और आपराधिक कृत्यों का रूप ले सकती है।

तकनीकी विकास ने इस संकट को और गहरा किया है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन गेम्स में परोसी जा रही हिंसक और अश्लील सामग्री किशोरों की सोच को विकृत कर रही है। साइबरबुलिंग जैसी घटनाएं किशोरों को मानसिक रूप से तोड़ती हैं और बदले की भावना को जन्म देती हैं।

किशोरों के अपराध में शामिल होने का परिणाम केवल उनके भविष्य को ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और समाज को प्रभावित करता है। आपराधिक रिकॉर्ड उनके शिक्षा और रोजगार के अवसर छीन लेता है। परिवार पर सामाजिक कलंक लगता है और न्यायिक व्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।

इस समस्या का हल केवल कानून से संभव नहीं है। परिवार, स्कूल, समाज, सरकार और मीडिया—सभी को मिल कर जिम्मेदारी निभानी होगी। माता-पिता को बच्चों के साथ संवाद बढ़ाना चाहिए और उन्हें भावनात्मक रूप से सशक्त करना चाहिए। स्कूलों को शिक्षा को जीवनोपयोगी और रुचिकर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे।

किशोरों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति एक चेतावनी है कि समाज की जड़ें कमजोर हो रही हैं। यह केवल एक कानून-व्यवस्था का प्रश्न नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संकट है। जब तक हम समग्र रूप से एक पोषणकारी, सुरक्षित और मार्गदर्शक वातावरण नहीं देंगे, तब तक इस समस्या का समाधान संभव नहीं। हमें आज के किशोरों को अपराध से नहीं, अवसर से जोड़ना होगा—तभी भारत का भविष्य सुरक्षित रह पाएगा।


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