भारत सहित कई देशों में आर्थिक-सामाजिक हालात चिंताजनक, पुनर्विवाह और सम्मान को लेकर अब भी रूढ़िवाद हावी
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विकास और सामाजिक जागरूकता के तमाम प्रयासों के बावजूद विधवा महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक दशा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। पारिवारिक और दूसरे तमाम कारणों से आज भी इनकी स्थिति समाज के दूसरे वर्गों की तुलना में कहीं अधिक चिंताजनक बनी हुई है। भारत ही नहीं, दुनिया भर में विधवाओं की स्थिति लगभग एक जैसी है—उपेक्षा, हिंसा, निंदा और नफरत से घिरी हुई।
भारत में राजा राम मोहन राय, दयानंद, केशवचंद्र सेन, महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले जैसे समाज सुधारकों ने विधवा महिलाओं की दशा सुधारने के लिए आंदोलन चलाए। अंग्रेजों के शासन में सती प्रथा पर रोक लगी, लेकिन आजादी के 78 साल बाद भी विधवाओं को वह सम्मान और अधिकार नहीं मिल सके, जिसकी वे हकदार हैं।
एक अध्ययन के अनुसार, दुनियाभर में 26 करोड़ से ज्यादा विधवा महिलाएं हैं, जिनमें भारत और चीन में संख्या सबसे अधिक है। भारत में चार करोड़ से ज्यादा विधवा महिलाएं हैं, जिनमें से अधिकांश कमजोर तबकों से आती हैं। पूर्व सैनिकों की विधवाओं की संख्या सात लाख से अधिक है और सरकार द्वारा उनके लिए पुनर्विवाह अनुदान, पेंशन, चिकित्सा और व्यावसायिक सहायता जैसी कई योजनाएं चलाई जा रही हैं।
हालांकि, सहायता के बावजूद आर्थिक संकट सबसे बड़ी समस्या बनी रहती है। विधवाओं की संतानों को स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। उनके लिए बच्चों की परवरिश और भविष्य की व्यवस्था करना बड़ा संघर्ष है। सवाल उठता है कि सरकारी प्रयासों और योजनाओं के बावजूद इनकी स्थिति में अपेक्षित सुधार क्यों नहीं हुआ?
समाज में आज भी ऐसी महिलाएं उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं। उत्सव, संस्कार और पारिवारिक आयोजनों में उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता या किया भी जाता है तो सम्मान नहीं दिया जाता। जबकि विधुर पुरुषों को न केवल सहजता से स्वीकार कर लिया जाता है, बल्कि पुनर्विवाह भी सामान्य रूप से हो जाता है।
अध्ययन बताते हैं कि विधवाओं के प्रति नकारात्मक सोच सिर्फ पुरुषों में नहीं, बल्कि सुहागिन महिलाओं में भी अधिक देखने को मिलती है। यहां तक कि शिक्षित वर्ग की महिलाएं भी विधवाओं से दूरी बनाकर चलती हैं, जिससे यह साबित होता है कि यह समस्या सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि मानसिकता से भी जुड़ी है।
विधवा महिलाओं की उपेक्षा, उन्हें अपशगुन मानना और सामाजिक बहिष्कार की भावना न केवल अमानवीय है, बल्कि कानून की दृष्टि से अपराध भी है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं, चीन सहित कई विकासशील देशों में समान रूप से देखने को मिलती है।
समस्या के समाधान के लिए केवल जागरूकता अभियान काफी नहीं हैं, बल्कि सामाजिक धारणाओं और व्यवहार में बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता है। जब तक समाज विधवा महिलाओं को समान अधिकार, सम्मान और स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर नहीं देगा, तब तक यह संकट बना रहेगा।